Sunday, August 17, 2014

इन्द्रधनुष

जैसे शांख होती है ना बिना पत्तो के,
जैसे सर्दियों में माटी होती है, बारिश के इंतजार में,
जैसे पत्तझड़ में धरती होती है सूखे पत्तो से पटी,
पर सूरज से वंचित,
जैसे पूर्णिमा के चाँद पर बादल छा जाता है कभी कभी,
जैसे मछली होती है पानी के बाहर,
ऐसा ही है मेरा अस्तित्व तुम्हारे बिना,
तड़पती हूँ मैं,
छटपटाती भी हूँ,
दिल को ढाढ़स देती हूँ ये सोच कर,
की मेरे पास नहीं हो तुम, तो क्या हुआ,
मुझे पता है,
मेरा प्यार तुम्हारे अंदर से झांकता है,
तुम्हारी परछाई में मैं झलकती हूँ,
तुम्हारी मुस्कुराहट में मैं खिलखिलाती हूँ,
तुम्हारे हाथों की रेखाओ में मैं थिरकती हूँ,
तुम्हारे आसपास जो हवाएं चलती है ना,
और कुछ नहीं है वो,
मैं पुकार रही होती हूँ तुम्हे,
वहा तुम्हारी पलकें झुकती है, यहाँ मैं नदी की तरह मुड़ती हूँ,
तुम मेरे पास नही तो क्या हुआ,
मैं ही अकेली नहीं,
देखो,
वो गीत भी सुर ढूंढ रहा है अभी तक,
उस फूल को भी पता नहीं कि किस रंग का वो खिले,
चिड़िया का वो बच्चा फुदकता हुआ गलत डाल पर जा बैठा है,
उस लड़की की कलाइयाँ भी ढूंढ रही है वो सुनहरी चूड़िया,
पर मैं तुम्हे कैसे समझाऊ,
माँ होती तो रो देती,
पिता होती तो डाँट के बताती,
बहन होती तो थोड़े नाटको से समझाती,
भाई होती तो थोड़ी मार से बतलाती,
बीवी होती तो रूठ जाती,
बालक होती तो गले से लिपट जाती,
मेरा तुम्हारा क्या रिश्ता है पता नहीं,
मेरे पास अगर कुछ है, तो बस यही चंद शब्द,
इन्हे ही मेरा प्यार समझना,
इन्हे ही मेरी मल्हार,
ये शायद बयां कर पायेगे मुझे,
और जो ना कर पाये, तो जाने देना,
बस एक गुजर करना,
सूरज की वो रौशनी बन कर गिरना मुझ पर,
की मैं इन्द्रधनुष बन कर छा जाऊ इस आसमा पर।

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