Friday, November 1, 2013

रुखसत

जब  भी मैं देखती हूँ खुद को आईने में,
ऐसा क्यूँ लगता है कि कुछ अधूरा है,
क्या है कुछ समझ नहीं आता,
प्रतिबिम्ब भी मेरा कुछ नहीं बतलाता 

दूर तुमने किया है,
समझाया भी है बहोत मुझे,
काश तुम समझ पाते,
ऐसे नहीं समझायी जाती ये बातें 

रुखसत किया जो जीवन से एक बार,
तो चली तो गयी मैं हमेशा के लिए,
महसूस हुआ पर ऐसे,
कि दिल कदमो तले रख कर कुचला है किसी ने 

प्यार करने में  देरी हुई या जल्दबाजी, ये पता नहीं,
तुम नहीं हो मेरे काबिल ये जरूर समझी मैं,
शर्ते लगायी तुमने इतनी कि हैरान थी मेरी तन्हाई भी,
क्या ये शख्स है वही, जिसके लिए हमने घंटो इतनी बातें कि  

जब क्युकि लेकिन किन्तु परन्तु हो इतने,
नहीं चल पाती दिल कि बात,
जगह ही न बचे जहा मासूम जज्बातो कि ,
क्या है औकात ऐसी इश्कबाजी कि

जाओ तुम, आजाद करती हूँ मैं,
मेरे लिए तुम थे ही नहि,
पूछना चाहती हूँ बस उनसे एक बार,
दिए क्यों ऐसे एहसास, जो ठन्डे ही सही, पर अंगारे बन कर दहकते है अब भी अंदर ही

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